रोमांच से भरपूर सफर में आपका स्वागत है..
मैट्रो? मैट्रो? मैट्रो? मडम मैट्रो? हां, लेकिन जगह कहां है? एक मिनट मडम। भईया थोड़ा आगे आ जाओ। लड़के ने मुझे देखा, बिना कुछ कहे ऑटो चालक के बगल में बनी छोटी-सी सीट पर जाकर बैठ गया। ऑटो वाला दोबारा दोहराने लगा - मैट्रो? मैट्रो? तभी एक आवाज आई " भैया चल भी लो।" हां-हां, चल रहा हूं, बस, एक सवारी और। अरे भैया, आगे मिल जाएगी सवारी। देर हो रही है। तभी, भैया मेट्रो चलोगे? हां मडम। जगह तो...? सवारी कुछ बोल पाती उससे पहले, "मडम थोड़ा-थोड़ा खिसक जाओ।" ऑटो के अंदर बैठी सवारी खिन्न मन से खिसकने लगी और नई सवारी बैठ गई।
दिल्ली में छोटी दूरी वाले ऑटो में यह नजारा आम है। ऑटो जब तक खचाखच भर नहीं जाता, तब तक आगे नहीं बढ़ता। सवारी के बार-बार कहने पर लगता तो है कि बस अब ऑटो चलने ही वाला है, लेकिन यह केवल भ्रम होता है। ऑटो के हाउसफुल होने का इंतजार होता रहता है। यहां ऑटो भरा, वहां चला, लेकिन इस बीच सड़क पर सरपट दौड़ते ऑटो की रफ्तार अचानक धीमी पड़ जाए, तो चौकिएगा नहीं, बस समझ लीजिएगा कि समय का फेर है। मतलब आगे यातायात बाधित है। वैसे यह हाल अक्सर सुबह और शाम का ही होता है, क्योंकि इस समय लोग या तो घरों से अपने काम की ओर जा रहे होते है या लौट रहे होते है।
अधिकतर तीन सवारी वाले ऑटो में पांच सवारियों की सीट तो पक्की होती है। आगे दो और पीछे तीन। उनके साथ ऑटो चालक को जोड़ दिया जाए तो कुल छः लोग। ऑटो चालक का बस चले तो वह अपनी सीट पर भी सवारी बैठा ले और खड़ा होकर ऑटो चलाए। वो तो पुलिस वाले का डर ज्यादा है, जो सवारी का आंकड़ा पांच पर रुक जाता है। वरना, ऑटो वाले को रोक पाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन होता। इसपर यदि बच्चा ऑटो में हो तो उसकी गिनती सवारी में नहीं होती है। कई जगहों पर तो आगे तीन और पीछे तीन सवारियां बैठाना आम है, यानी चालक को मिलाकर कुल सात लोग। यहां चालक का वाहन चलाने और बैठने का हुनर उभर कर सामने आता है।
ऑटो में महिलाओं और पुरुषों के बैठने की जगह लगभग तय है। ऑटोवाले के अगल-बगल में अधिकतर पुरुष बैठते हैं। इस अलिखित नियम का पालन बड़े ही शिद्दत से होता है। अक्सर महिला के आते ही पीछे की सीट पर बैठा पुरुष अपनी सीट छोड़ कर ऑटो चालक के बगल में आकर बैठ जाता है। ऑटो चालक के साथ बैठी सवारी आम कद-काठी की हो तो सब सही, लेकिन हस्ट-पुष्ठ हो तो दिमाग पर जोर देने की जरूरत ही नहीं पड़ती है। सब कुछ नजर के सामने साफ दिखाई दे रहा होता है। ऑटो चालक कभी हैंडल संभाल रहा होता है, कभी खुद को। रास्ते के घुमाव से कही ज्यादा घुमाव उसके शरीर पर दिखाई देते है। पूरा शरीर टेढ़ा-मेढ़ा, लेकिन ऑटो एकदम सीधा चल रहा होता है। इससे अलग रास्ते के दूसरे वाहनों से भी कदमताल मिल रही होती है।
ऐसे में ऑटो वाले के अगल-बगल में बैठे सवारियों की हालत जान लेना तो बनता ही है। सवारियों के शरीर का कुछ हिस्सा ऑटो से बाहर रहना तो तय समझो। एक हाथ आटो वाले की सीट के पीछे और दूसरा ऑटो की छत पर। सवारियों का ध्यान रखते हुए कुछ ऑटो चालकों ने अपनी सीट के दोनों ओर छोटी-छोटी सीटें लगा रखी है, लेकिन एक तो उसका आकार छोटा, दूसरा कवर फिसलन भरा। पूरे रास्ते सवारी सीट पर बैठती कम है, बैठने की कोशिश करती ज्यादा दिखाई देती है। इस पर यदि कोई गड्ढा आ जाए या अचानक ब्रेक लग जाए, तब? दो बाजुओं की ताकत का असली पता यहीं चलता है, जो बिगड़ती हुई स्थिति को संभालने में लगे रहते है। गनीमत बस इतनी है कि रास्ता 2-3 किलोमीटर का है। वरना! कसरत और सर्कस की समय सीमा बढ़ना तो तय होता।
बात यहां नहीं रुकती, ऑटो वाला मद मस्त होकर ऑटो चला रहा होता है, तभी अचानक आवाज आती है "रै भाई, जरा देख के चला ले।" ऑटो में फैले सन्नाटे के बीच सबका ध्यान आवाज की ओर जाता है, जानने के लिए कि आखिर हुआ क्या है? यह आवाज अधिकतर चालक की बगल में बैठी सवारियों में से किसी की होती है, उसका शरीर रास्ते के दूसरे वाहनों से टकरा चुका होता है या टकराने वाला होता है। ठीक है भईया, बोलकर ऑटो वाला फिर अपनी धुन में खो जाता है। यहां चालक से ज्यादा सवारी सड़क पर सजग दिखाई देती है। इसी के साथ सवारियां हर थोड़ी देर में चालक की कोहनी भी झेल रही होती है।
ऑटो में सवारियां एक दूसरे से इतने सट कर बैठी होती है कि एक सवारी ने जैसे ही अपने बैठने की स्थिति बदली, दूसरे भी खुद को व्यवस्थित करने लग जाते है। यहां उथल-पुथल तब मच जाती है, जब अंदर बैठी सवारी को बीच रास्ते में कहीं उतरना हो। बीच में बैठी सवारी को उतारने के लिए कोने में बैठी सवारियां पहले उतरती है या पैर सिकोड़ लेती है। ऐसे में बैठी सवारियों को अपने सामान को कस कर पकड़ना पड़ता है, वरना उतरने वाली सवारी के साथ उसका जाना तो तय है। किसी का बड़ा बैग या सामान हो तो सवारी के उतरते-उतरते ऑटो में भूचाल जैसी स्थिति बन जाती है। उसके बाद फिर माहौल शांत।
इस बीच शांति भरे माहौल में अचानक आवाज आती है, "साइड में रोक देना भैया"। ऑटो वाला बिना कुछ कहे सड़क किनारे ऑटो खड़ा कर देता है, सवारी बिना कुछ बोले किराया दे देती है और ऑटो आगे बढ़ जाता है। यहां ऑटो चालक और सवारी के बीच गजब का तालमेल दिखाई देता है। इसके विपरित कई बार चालक पीछे से आनेवाले वाहनों की परवाह किए बगैर ऑटो को एकदम से मोड़कर किनारे पर खड़ा कर देते है, उनकी यह लापरवाही अक्सर सड़क दुर्घटना को आमंत्रित करती है।
ऑटो में एक-एक सेकंड का पता तब चलता है, जब रास्ते में भारी यातायात मिल जाए। यहां कान में लगा हेडफोन दो काम करता है, पहला ऑडियो सुनाने का और दूसरा रास्ते पर चल रहे वाहनों की चिल्ल-पो से निजात दिलाने का। इस पर यदि मौसम गर्मी का हो तो पसीने की चिप-चिप और दुर्गंध के साथ यात्रा चुनौतियों से भर जाती है।
हद तब हो जाती है जब ऑटोवाले के मुंह में गुटखा भरा हो, उसका जहां मन हुआ ऑटो से मुंह बाहर निकाला, पच्च से पिचकारी मारी और कुछ छींटा सवारियों पर। "यह क्या भैया?" सवारी छिंटा पोछते हुए। "ग.. गलती से हो गया मडम।" थोड़ी देर की नाराजगी, फिर सन्नाटा। इसबीच जब चालक नई सवारी को बुलाने के लिए मुंह खोलता है, उफ्फ! ये बदबू। कई ऑटोवाले तो इनसे भी एक कदम आगे होते है। वे तो भूल ही जाते है कि वे सेवा प्रदाता है। वे ऑटो में शोर मचाते हुए जोर-जोर से गाने चलाते है, यदि सवारी आवाज कम करने की गुजारिश करे तो अनसुना भी कर देते है। कई तो सवारियों से हुज्जत से बात करना अपनी शान समझते हैं। कुछ तो ऐसे हैं जो सामने लगे आईने से पीछे बैठी महिलाओं को ताड़ते रहते हैं।
जरा सोचिए, यही ऑटो तीन की बजाए छः सवारी वाला हो, तब? वैसे किस्सा लगभग वही होता है, बस सवारियों की संख्या बढ़कर दस हो जाती है। यहां ई-रिक्शे वाले भी अपनी क्षमता से अधिक सवारियां भरने में पीछे नहीं है। ये भी चार की जगह पाँच तो कभी छः सवारियां बैठा ही लेते है।
यहां बता दूं कि मेट्रो से एक निश्चित दूरी तक सवारी वाले ऑटो चलते हैं, जो दिन भर उसी रास्ते पर सवारी लाने और ले जाने का काम करते हैं। इसमें किराया प्रति सवारी के हिसाब से लिया जाता है। लंबी दूरी वाले ऑटो का हिसाब अलग होता है। दोनों में मीटर सिर्फ चालान से बचने के लिए लगा होता है। सवारी के लिए उसका कोई उपयोग नहीं होता, क्योंकि वह अक्सर खराब होता है या यों कहें खराब बताया जाता है। छोटी और लंबी दूरी वाले ऑटो में फर्क बस इतना होता है कि एक में किराए की रकम आपको पता है, दूसरे में नहीं। जहां किराया पता नहीं होता, वहां अमूमन ठगी होती है। यहां छोटी दूरी के ऑटो का किराया आपको तब तक कम लग सकता है, जब तक आप अपने परिवार या दोस्तों के साथ यात्रा नहीं कर रहे हैं।
इन सब से अलग यदि आप रोजाना छोटी दूरी वाले ऑटो में यात्रा करते हैं, तो ऑटो चालक और आप एक-दूसरे को जानने लग जाते है, क्योंकि दिल्ली में घर से मेट्रो और मेट्रो से घर तक का सफर ज्यादातर ऑटो में तय होता है। आकस्मिक हो या आम समय, भोर सवेर से देर रात तक इनकी सेवा उपलब्ध है। मतलब, दिल्ली जैसे महानगर में ऑटो में सफर करना मजबूरी के साथ-साथ जरूरत भी है। ऐसी स्थिति में सड़क पर सवारियों को लेकर लापरवाहियां और कलाबाजियां क्या उचित है? वो तो सवारी की लाचारी ही समझिए, जो खतरा मोल ले कर भी मौन है। संक्षेप में कहे तो "भाईयों और बहनों, ऑटो में दिल और दिमाग थाम कर बैठ जाइए, क्योंकी आपकी यात्रा होगी रोमांच से भरपूर और सुरक्षा मानकों से कोसो दूर।
टिप्पणियाँ
It's very nice
Keep it up...💐
this auto wali story👏👏
सच यही है ऑटो ड्राइवर की जिंदगी और मध्यम वर्ग की एक ...ड्राइवर की जिंदगी ऑटो चलते और सवारी की जिंदगी ऑटो खोजने में गुजरती है....दोनो की नोंकझोंक.. भागने की जल्दी...एक सुखद अनुभव और जिंदगी की लकीर है।
Well-done keep it up,👍👌👍
gaya
Agar rojana karo to life change hona swabhawik hai.......