जरा यहाँ भी ध्यान दीजिये, हमारी समझ को भी समझ लीजिये|
हाथ में मोबाईल लिए मैं यू ट्यूब पर अपनी पसंद के वीडियो खोज रही हूं। खबरें, स्वादिष्ट व्यंजन बनाने की विधि, नए - पुराने गीत, कला - संस्कृति आदि से जुड़े वीडियो की सूची मेरे सामने है। मैंने कला और संस्कृति के वीडियो को देखना शुरू ही किया था कि अचानक दूध की सुगंध आई। मैं झट से उठी और रसोईघर में पहुंच गई। गैस की सिगड़ी देखी और सिर पर हाथ मारा। दूध की सुंगध मेरे कमरे से नहीं बल्कि किसी दूसरे के कमरे से आ रही थी। मैंने दोबारा वीडियो में ध्यान लगाया, तभी जोर - जोर से कपड़े पटकने की आवाज आने लगी। मैं मुस्कुराई और कपड़े की आवाज को अनसुना कर अपना ध्यान फिर से वीडियो में लगा दिया।
ये है दिल्ली का गांधी विहार, एफ ब्लॉक, यहां दिन हो या रात, रह - रह कर ऐसी आवाजें, सुगंध, दुर्गंध आती रहती है। किसी के खांसने, छिंकने, जोर - जोर से गाने, ठहाके लगाने, बाल्टी में पानी भरने, कुछ टूटने जैसी कई प्रकार की आवाजें यहां आम है। रात 2 बजे कुकर की सिटी अब चौकाती नहीं है। सुबह - सुबह तीखी आवाजों वाली बहसों को सुनकर सोना आदत - सी बन गई है।
यहां युवा 200 से 500 गज के कमरों में छोटी - बड़ी सरकारी परीक्षाओं की तैयारियों में लगे हुए हैं। कई परीक्षार्थी अकेले रहते हैं, तो कई अपने साथी के साथ। कई कमरों में तो 4 - 5 परीक्षार्थी साथ रहते है, सभी लाइब्रेरी में पढ़ने जाते है, कमरा केवल सामान रखने और नित्य क्रियाओं के लिए ले रखा है। परिक्षार्थियों के अलावा इक्का - दूक्का परिवार भी यहां रहते है।
नियमित रूप से सम - सामयिक विषयों पर चर्चाएं यहां गर्म रहती हैं। कोई ब्लॉक के परिसर से गुजरने वाली संकरी और तंग गलियों में खड़े होकर बातचीत करता है, कोई अपनी छोटी - छोटी बाल्कनी में खड़े होकर, तो कोई दुकानों पर, यानी जिसे जहां जगह मिले, दोस्त मिले, चर्चा शुरू। कई बार तो चर्चाएं चीख - चिल्लाहट में भी बदल जाती है। बहुत से लोग तो बाल्कनी में आकर निजी बातचीत भी इतने जोर - जोर से करते है कि वो सार्वजानिक हो जाती है। ये तो कुछ नहीं, गली के एक कोने से दूसरे कोने वाले के साथ बातें होती है। फोन पर कौन, किससे क्या बातचीत कर रहा है, अक्सर पता चल ही जाता है। चीख - पुकार के साथ होने वाले झगड़े भी यहां आम है।
जुलाई 2015, ये वो साल है जब मैं दिल्ली में रहने के इरादे से आई थी। मेरी ट्रेन सुबह 6 बजे के आस - पास दिल्ली पहुंची थी। इसके पहले मैं कई कारणों से दिल्ली आ चुकी थी, इसलिए यहां की भीड़ और शहर, दोनों मेरे लिए नए नहीं थे। नई दिल्ली रेल्वे स्टेशन के पास बने मेट्रो स्टेशन से मैंने गुरु तेग बहादुर नगर की ओर जाने वाली मेट्रो पकड़ी। अपने गंतव्य मेट्रो स्टेशन पर उतर कर बत्रा बांध के लिए सवारी ऑटो में बैठ गयी। बांध पर उतर कर मैंने अपनी नई दोस्त को कॉल किया। मैं बांध तक कैसे पहुंच सकती हूं, इसकी सारी जानकारी वो मुझे फोन पर दे चुकी थी, साथ ही इस बारे में एक मैसेज भी मेरे फोन पर भेज चुकी थी। वैसे मैं यहाँ बता दूँ कि बत्रा बाँध नाले पर बना हुआ एक पुल है, जिसपर से गाडियों और लोगो का आना जाना होता है।
बत्रा बांध से पहली बार मैंने गांधी विहार की इमारतें देखी थी, जो दूर से आकर्षक लग रही थी। मेरी दोस्त आई, हम दोनों एक दूसरे से पहली बार मिल रहे थे। उसने मेरे हाथ से कुछ सामान लिया और मैं उसके साथ अपने नए कमरे की ओर बढ़ने लगी। बारिश का महीना था, मौसम सुहावना था। एक तरफ छोटी नदी का एहसास कराता हुआ लंबा नाला था, जिसे लोग यहाँ मजाक में छोटी गंगा भी कहते है, दूसरी तरफ छोटे - छोटे खेत, आद्र भूमि, सफेदा के पेड़, झाड़ियां आदि रास्ते को मनमोहक बना रहे थे । जैसे ही गांधी विहार के फाटक पर पहुंची इधर - उधर फैली पॉलीथीन पर नज़र पड़ी। पानी भी जगह - जगह जमा हुआ था। इक्का - दुक्का नौजवान टहल रहे थे। सुबह का समय था तो इमारतों के नीचे बनी छोटी - छोटी दुकानें बंद थी।
लंबी इमारतों के बीच पहली संकरी गली में मैंने कदम रखा, और ये क्या? मक्खियां! जैसे - जैसे मैं आगे बढ़ती मक्खियों का झुण्ड भिन - भिनाता हुआ मेरे आस-पास उड़ता और फिर शान्ति से बैठ जाता। कच्ची - पक्की सड़क जो बारिश के कारण कीचड़ से ढक चुकी थी, वहां से मैं खुद को और अपने सामान को संभालते हुए अपनी इमारत के पास पहुंची। एक - दूसरे से सटी हुई और लगभग एक जैसी दीखने वाली इमारतों में अपनी इमारत का पता लगाना, किसी पहेली से कम नहीं लग रहा था। वो तो अच्छा हुआ मेरी दोस्त मेरे साथ थी। वो आगे - आगे और मैं उसके पीछे - पीछे।
इमारत में प्रवेश करते ही सीढ़ियों पर पैर पड़ा। एक से दूसरी सीढ़ी पर पैर रखते ही पता चल गया था कि सीढ़ियां कुछ अलग है। चढ़ना शुरू किया तब समझ आया कि सीढ़ियां अलग नहीं, अजीब है। पहली मंजिल की कुछ सीढ़ियां चढ़ने में ही मेरी हालत खराब हो गई। एक - एक सीढ़ी की उंचाई 2 सीढ़ियों के बराबर थी, कहीं तो 3 भी थी। कमरा चौथी मंजिल पर था। वहां तक अपने सामान के साथ पहुँचना किसी पहाड़ की चढ़ाई से कम न था। जैसे - तैसे मैं कमरे के पास पहुंच गई। छोटी सी बाल्कनी, बड़ा लोहे का आधा जाली वाला दरवाजा, बाहर से ही पूरा दिखाई देने वाला छोटा - सा कमरा। इसी में एक छोटा रसोईघर और शौचलय बना हुआ था। कमरे में आकर सुकून हुआ। नई दोस्त के साथ मैंने अपना नया सफर शुरू किया। हम दोनों एक - दूसरे से अनजान थे, लेकिन ऐसे साथ रहने लगे, जैसे बरसो से जान - पहचान हो।
एफ ब्लॉक में करीब 350 मकान है। मकान क्या, कहिये कमरे हैं। सभी की बनावट लगभग एक जैसी ही है। कुछ मकान 2 कमरे वाले भी है। यहां रहते हुए पहली बार मुझे खिड़की और एग्जॉस्ट फैन की आवश्यकता महसूस हुई। दिल्ली में उमस वाली गर्मी होती है। कमरा भट्टी की तरह गर्म हो जाता है। पसीना तो रुकने का नाम ही नहीं लेता। घूमता हुआ पंखा शारीरिक शांति से ज्यादा मानसिक शांति देता है। यहां मिलने वाले चिकनी मिट्टी के घड़े भी गर्मी को सह नहीं पाते। गर्मी में खाने - पीने की चीजें लाओ और खाओ। बस। यही हिसाब रहता है, क्योंकि अगले दिन तक वह खाने लायक नहीं बचेगी। इस पर भी चिटियों, कॉक्रोजों, चूहों, अजीबो-गरीब कीड़ों से जंग चलती रहती है। वैसे तो दिल्ली में बहुत कम बारिश होती है, लेकिन जब भी होती है, सड़कों को पहले से ज्यादा खराब कर देती है। एक दिन की बरिश से ही बहुत दिनों तक जगह - जगह पानी जमा रहता है। यहां की जैसी गर्मी वैसी ही ठंड। ठंड में धूप बहुत कम निकलती है। चाहे जितने कपड़े पहन लो, कम्बल ओढ़ लो, ठंड ना जाने वाली। एक ही उपाय है, ठंड से दोस्ती।
यहां के बहुत से कमरे ऐसे हैं, जहां तक सूरज की किरणें पहुंचती ही नहीं। धूप न आने से कमरे के भीतर हमेशा गीलापन रहता है। इससे दीवारों पर प्लास्टर की पपड़ियाँ उभर आई है और एक अजीब सी गंध कमरे में भरी रहती है। जहां धूप आती है, वहां प्लास्टर इतना कच्चा है कि दीवारों पर टिक नहीं पाता। यहां की दीवारों में कील ठोकना बहुत ही मजेदार है। कई जगह पर कील बिना किसी मेहनत के चम्मच की सहायता से घुस जाती है, तो कहीं हथौड़ी के कितने भी प्रहार कर लो, कील टस से मस नहीं होती है। कहीं दीवार इतनी कच्ची है कि चलते - चलते हाथ भी लग जाए तो झड़ जाती है। पुरानी तो पुरानी, नई इमारतों के हाल भी कुछ अलग नहीं है। कुछ मकान मालिकों ने यहां पुरानी इमारत तोड़कर दोबारा बनवाई, उसका किराया तो बढ़ गया, लेकिन हालत वही, इमारत नई।
किस्सा यहां नहीं रुकता, अभी तो हम छत पर गए ही नहीं। अब इमारतें सटी हुई हैं, तो छतें भी चिपकी होना लाजमी है। किसी भी एक छत पर चढ़ कर, वहां से दूसरों की छतों पर आना - जाना आम बात है। कई बार चौथी मंजिल से नीचे उतरने के लिए सोचना पड़ता है, क्योंकि एक बार उतरे तो ऊपर चढ़ते हुए सांस फूल जाती है। ऐसे में लोग कूड़ा फेंकने भी नीचे उतरना पसंद नहीं करते हैं और जिन छतों पर ज्यादा कोई आता - जाता नहीं है, वहां कूड़ा डाल देते हैं। यही वजह है कि खाने की तलाश में कुत्ते और बिल्लियां छतों पर घूमते और गंदगी फैलाते मिल जाएंगे। यहां कई इमारतें ऐसी है, जहां से छतों के लिए रास्ता नहीं है। अधिकतर ऐसी ही छतों पर कचरा जमा मिलता है। कई तो इतने महान है कि अपनी छतों पर कचरा जमा कर उसे जला देते है। कई तो छत की बजाए गलियों के रास्तों पर ही कचरा फेंक देते है, नीचे उतरने की जरूरत ही क्या है? पानी की टंकियां बहना तो यहां आम बात है। कई लोग तो पानी की मोटर चालू कर, बंद करना भूल ही जाते है। बस पानी बहता रहता है और छत तालाब में बदल जाती है। ऐसे में मच्छरों का आतंक हमेशा बना रहता है।
यहां भी बात नहीं रुकती, छतों पर महीनों या कहो सालों से गद्दे पड़े है, उन्हें देख कर लगता है, किसी ने गद्दा सुखने तो डाला था, लेकिन ले जाना ही भूल गया। कई छतों पर पीपल के पेड़, लंबी - लंबी घास, जंगली पौधे पनप गए हैं। कई इमारतों की दीवारों, बाल्कनी और कहीं तो शौचालय वाली पाइपों में भी पीपल ने अपनी जगह बना ली है। गर्मी के दिनों में लोग केवल टहलने या हवा लेने छत पर नहीं आते है, टंकी से पानी निकाल कर नहाना और कपड़े धोना भी यहां आम बात है। बहुत - सी पानी की टंकियों पर तो ढक्कन भी नहीं है।
एफ ब्लॉक के मुख्य द्वार की तरफ नाला है, उसी के विरुद्ध है पॉवर ग्रिड। इलाके में 2 छोटे उद्यानों के लिए दीवारें खड़ी की गई है, लेकिन पेड़ - पौधों की जगह यहां वाहन खड़े रहते है। पॉवर ग्रिड की तरफ जो उद्यान है, वहां पीपल के पेड़ के नीचे देवी - दिवताओं की तस्वीर रख कर किसी ने मंदिर बना दिया है। जब मैं यहां आई थी, तब कोई मंदिर ना था। इसी उद्यान से 5 - 7 कदम दूर एक इमारत की जगह खाली है। ठीक मंदिर के सामने, यहां कचरे का अंबार लगा हुआ है। उद्यान के अंदर, जहां तक मंदिर की जगह है, उसे छोड़ कर बाकी जगह कचरा फैला रहता है। ब्लॉक में छोटा सा मैदान भी है, वो भी कूड़ा घर ही बना हुआ है। यहां के पेड़ - पौधों पर पत्तियों से ज्यादा पॉलीथीन देखने को मिल जाएगी। ऐसा लगता है मानो पॉलीथीन के पेड़ उग आये हो। पॉवर ग्रिड की दीवार पर लगे तारों में भी पॉलीथीन लटकी पड़ी है। क्षेत्र की चार दिवारी के हर कोने में कूड़ा जमा हुआ है। सफाई कर्मचारी गलियों में झाडू तो लगा जाते है, लेकिन कचरे में कमी दिखाई नहीं देती।
यहां की छोटी - छोटी गलियों में ना सिर्फ काले बिजली के तारों बल्कि पानी के पाईपों का भी जाल बिछा हुआ है। गली से गुजरो तो सिर के ऊपर काले, नीले बिजली के तार झूलते हुए दिखाई देते है और पैरों के नीचे सफेद रंग के पतले - पतले प्लास्टिक से बने पानी के पाइप फैले पड़े है। नीचे चलते हुए ध्यान भटकते ही लड़खड़ाना तो बनता है। इस पर गटर के ढक्कन भी 2 - 3 इंच नीचे धस गए है, यदि नजर हटी, तो गिरना पक्का समझो।
बॉल्क में रोजमर्रा के सामानों वाली 8 - 10 दुकानें है, वहां अक्सर दुकानदार भोजपुरी, हरयाणवी या 90 के दशक वाले गाने सुनते नजर आते है। 20 लीटर वाली पानी की बोतलों की बिक्री यहां खूब होती है, ठीक ऐसे ही 5 किलो वाले छोटे सिलेंडरों में गैस भरने का भी इंतजाम है। 10 - 10 रुपए में नई - पुरानी फिल्में पेन ड्राइव में आसानी से मिल जाती है। बीच - बीच में सब्जी-फल विक्रेता, कुकर सुधारने वाला, कबाड़ी वाला, गैस की सिगड़ी सुधारने वाला आदि भी आते रहते है। यदि कोई एक भी व्यक्ति किसी विक्रेता से किसी चीज का दाम पूछता है, तो गली में दूसरे लोग उसी आधार पर खरीदारी को लेकर अपना मन बना लेते हैं।
इन सब से अलग, दिल्ली में आए दिन भूकंप आते रहते है। मैंने पहली बार भूकंप के कंपन और डर को साथ - साथ यहीं महसूस किया। आप किसी काम में मगन है, अचानक कमरा हिला, जब तक आप समझे कि क्या हुआ, लोगों के चिल्लाने की आवाजें आपके कानों तक पहुँचने लगती है। अफरा - तफरी सी मच जाती है। दरवाजा खुलने, सीढ़ियों से चढ़ते - उतरते पदचापों की आवाजें बढ़ जाती है, क्योंकि कोई छत की तरफ भाग रहा है, तो कोई नीचे की ओर। सभी जान बचाने में लगे हैं। इमारत हिलती हुई नजर आ रही है, जान हलक में आ गई है। बस यही नज़ारा लगभग हर भूकंप में होता है। कभी - कभी तो इसके झटके ऐसे होते है कि गहरी नींद से झकझोर कर जगा दें। तेज हवा भी यहाँ ग़दर मचा कर जाती है।
वैसे तो गांधी विहार में ' ए ' से लेकर ' एफ ' ब्लॉक तक है, लेकिन ' एफ ' ब्लॉक थोड़ा अलग-थलग बना हुआ है। ' ए ' से लेकर ' ई ' ब्लॉक और वहाँ लगने वाला बाजार यहां से 1 किलोमीटर दूर है। अक्सर लोग वहीं रहना पसंद करते है। जब वहाँ रहने की कोई व्यवस्था नहीं हो पाती या जेब साथ नहीं देती है, तब लोग इसे (' एफ ' ब्लॉक) आखरी विकल्प के रूप में देखते है। मोबाइल नेटवर्क के यहाँ बुरे हाल है, एक ही ईमारत में कहीं मोबाइल का नेटवर्क फुल रहता है, तो कहीं आता ही नहीं है। कई कमरे तो ऐसे है जिसके एक हिस्से में नेटवर्क आता है, तो दूसरे में नहीं। ऊपर से कई दिनों तक तो यहाँ वाई-फाई की सुविधा देने कोई आगे नहीं आता था। कई बार झोमेटो, स्विगी, डोमिनोज़, फ्लिप्कार्ट आदि ऑनलाइन सेवाएँ भी यहाँ आने से मना कर देते थे। ऐसा लगता है मानो शहर के बीचों-बीच एक जंगल है, जहाँ आने से लोग कतराते है।
एफ ब्लॉक से गांधी विहार के मुख्य बाजार की ओर जाने के लिए एक कच्चा रास्ता है, जिसके दोनों ओर झाड़ियां हैं। झाड़ियां बड़ी होकर एक - दूसरे से ऊपर मिल गई है। जिसने रास्ता छायादार बना दिया है। यहां भी झाड़ियों और रास्ते पर पॉलीथीन फैली हुई रहती है। इसी के बगल में एक बड़ा रास्ता है, जो किसी समय पक्की सड़क थी , अब सड़क टूट गयी है और नीचे की धूल - मिट्टी ऊपर आ गई है, फिलहाल धूल उड़ाती हुई गाडियां इसपर से गुजरती है। मुख्य सड़क से लग कर एक हरियाली से भरा उद्यान भी है। यह ब्लॉक के बाहर है। उद्यान से लग कर ही दिल्ली-चंडीगढ़ महामार्ग है।
अलग - थलग होने से नाले के किनारे वाला रास्ता हो या गांधी विहार के बाजार वाला रास्ता, रात होते ही इक्का - दुक्का लोग ही रास्ते पर दिखाई देते है। नाले वाले रास्ते पर लाइट नहीं है और बाजार वाले रास्ते की लाइटें हमेशा बंद रहती है। ऐसे में महिलाओं के लिए रास्ता असुरक्षित हो जाता है। कई बार तो एफ ब्लॉक के मुख्य द्वार पर लगी लाइट भी बंद रहती है। ब्लॉक से थोड़ी ही दूर किसी सयाने अधिकारी की रजामंदी से नाले वाले रास्ते पर एक अजीब लाइट कुछ समय पहले ही लगाई गई है, जिसका मुंह सड़क के विपरित दिशा में है और रोशनी भी केवल खंभे के आस - पास तक ही रहती है, मानो ये लाइट कह रही हो - अपनी सुरक्षा खुद करो, मेरे भरोसे मत रहो, मैं खुद को बचा लूँ यही काफी है। 500 मीटर लंबी सड़क पर अंधेरा होने से छीना - झपटी के किस्से अक्सर सुनाई देते है।
इन सबके बावजूद ठंडी हो या गर्मी या बरसात, सुख - दुख के हर पल को हमने यहां जिया है। किसी के परीक्षा में उत्तीर्ण होने की खुशी हो या अनुत्तीर्ण होने का ग़म, साथियों के साथ महसूस किया है। जन्मदिन के अलावा भी बेवजह पार्टियां यहां मनाई है। साथियों के व्यक्तिगत मामलों में भी हम शामिल हुए है। समय के साथ एक कमरे को सजावट और प्यार से घर बना दिया है। छोटी सी गैलरी अब हरी - भरी हो गई है। कई सारे पकवानों का स्वाद छोटे से रसोईघर से हमने लिया है। आस-पड़ोस से भी अच्छी दोस्ती हो गई है। यहां मजबूरी कहो या सामंजस्य बिठाने की कला, विपरित परिस्थितियों में भी हमने जीना सीख ही लिया है।
तो ऐसा है गांधी विहार, एफ ब्लॉक, जिसे महात्मा गाँधी के नाम की उपमा तो मिली है, लेकिन उनके विचारों से कोसो दूर है। जरा गौर फरमाइएगा, ये जो दिले दास्तां हमने बयां की है, ये सिर्फ यहीं का हाल बयां नहीं करती है। दिल्ली में ऐसे कई गांधी विहार है। रोजी - रोटी की तलाश, सपनों को पूरा करने की ललक या कहो भविष्य को संवारने का जुनून, देश के विभिन्न राज्यों से आकार लोग ऐसे ही रिहायशी इलाकों में गुजर बसर कर रहे हैं। दिल्ली की कई जगह तो ऐसी है, जिसे देख कर आपकी आंखे अचरज करती है, अधिकतर में तो आंखे खोलने का भी मन नहीं करता है। यहां आकर समझ आया कि महानगरों की चकाचौंध के पीछे समस्याओं से भरी एक अलग ही दुनिया है।
टिप्पणियाँ
🤗😘 I'm Waiting for your next Blog ....
शायद यही चकाचौंध टीवी पर देखे जाने वाली दिल्ली की सच्चाई है ......
I enjoyed it alot.
आप इसी तरह लिखते रहिये और अपनी समझ से सबको समझाइये।
हार्दिक शुभकामनाएं एवं बहुत-बहुत बधाई....!!
:'(golu. Seekho Love you beta 😘😘😘
Proud on You.
Nice observation.
Delhi ka ek abhinna hissa jisase sabhi rubaroo nahi hai jise taraf dhyan dene ki boht zaroorat hai.
HOPE....apka blog kamal kar jaye aur apki aur waha rehne walo ki taklife kam ho ...keep it up di......amezing story of F block...waiting for d next blog.....��