बाजारों की गलियों में सभी निभाए किरदार, कोई कहता विक्रेता हूँ, कोई कहे खरीदार।



यह झुमका कितने का है भैया? एक नहीं मिलेगा? कितने लेने पड़ेंगे? कम से कम 6, 20 रुपए का एक है। कोई भी! सच में! यह सुनकर कान खड़े हो गए। मैंने दोबारा कीमत पूछी। कितने का? 20 रुपए का एक है। मन में सोचा इतना सस्ता। मैं थोड़ा मुस्कुराई और ख़ुशी-ख़ुशी अपने काम में लग गई। काम झुमकों की छटाई का। एक - एक कर मैं झुमकों को उलट - पलट कर देखने लगी और कुछ देर की मेहनत के बाद मनपसंद 6 झुमके निकाले। दुकानदार को पैसे दिए और आगे बढ़ गई।

क्या बात है! आगे वाली दुकान में और भी नए प्रकार के झुमके। एक साथ इतने प्रकार के झुमके मैं पहली बार देख रही थी। शायद यही वजह है कि मेरी खुशी सातवें आसमान पर थी। इसके बाद तो मैंने एक - एक कर सारी दुकानों में झुमके देख लिए, जहां पसंद आए, खरीद भी लिए।

यह है दिल्ली का सदर बाजार। पहली बार मैं अपनी दोस्त के साथ यहां आई थी। दिन  रविवार का था। हमने चांदनी चौक से सदर बाजार के लिए ई - रिक्शा लिया। हम दोनों अपनी बातों में मशगूल थे। अचानक रिक्शेवाले ने कहा, मैडम यहीं उतर जाइए, रिक्शा आगे नहीं जा पायेगा। बातों से हमारा ध्यान हटा और यह क्या? भीड़! वो भी इतनी। मुझे अपनी आखों पर भरोसा ही नहीं हो रहा था। जहां तक नजर जाए, वहां तक सिर्फ नरमुंडों का झुंड। इसपर हर जगह शोर।

मेरी दोस्त इस बाजार में कई बार आ चुकी थी, बाजार में पहुंचते ही उसने मुझसे कहा "बैग आगे की तरफ टांग लो। पैसे और फोन का खास ध्यान रखना।" मैने बिना कुछ कहे हाँ में गर्दन हिला दी, क्योंकि जो मैं देख रही थी, वह सब मेरी कल्पना से परे था। पतली - सी कच्ची - पक्की सड़क, इसपर लोग चल नहीं, रेंग रहे थे। पतली सड़क के दोनों ओर दुकानें सजी हुई थी। दुकानदार चीख - चीख कर अपने सस्ते माल की ओर खरीदार का ध्यान आकर्षित कर रहे थे। यहां खुद की साज - सज्जा से लेकर घर की साज - सज्जा तक का लगभग सारा सामान मिल रहा था। और तो और सामानों की विविधता में भी कोई कमी ना थी। कई दुकानों में तो पुराने सामानों को नया बना कर भी बेचा जा रहा था। यह सब देख कर ऐसा लग रहा था मानो बाजार में खरीदार और विक्रेता दोनों ही खतरों के खिलाड़ी है। जिसकी जितनी सामानों की परख, उसके मोल - भाव  के इस खेल को जीतने के उतने मौके।

मेरी दोस्त ने कहा,"तुम्हे जो सही लगे खरीदना शुरू कर दो।" मैंने हां तो कर दी, लेकिन खरीदूँ कैसे? जगह कहां है? कुछ दिख भी नहीं रहा। ऊपर से भीड़ है कि कहीं खड़े होने का मौका तक नहीं दे रही है। लोग एक दूसरे से टकरा - टकरा कर जा रहे हैं। कुछ देर चारो तरफ नजर घुमाई, बाजार की नब्ज समझी, फिर क्या था, औरो की तरह मैं भी भीड़ का हिस्सा बन गयी और कूद पड़ी खरीदारी करने।

मैंने दुकानदार से झुमकों का दाम पूछना शुरू ही किया था कि तभी वह सामान समेटने लगा और मेरे हाथ से सामान छीन कर रख दिया। मैं एकदम आवाक! यह क्या हुआ ? ऐसा भी होता है ! दुकानदार कहीं  देखने लगा। यह समझने के लिए कि आखिर हो क्या रहा है, मैंने भी उसी ओर अपनी नजरें घुमाई। मैं कुछ समझ पाती इससे पहले वह अपने साथी से बोला,"दुकान समेट, जल्दी।" उसका साथी बिना समय गवाएं काम में लग गया। मैं दोबारा पूछती, उससे पहले मेरी दोस्त ने कहा, "घबराओ मत, सामान उठानेवाले लोग आए है। यहाँ अक्सर ऐसा होता रहता है।" इसके बाद क्या था? मेरी आँखों के सामने सड़क के किनारे सजी सारी दुकानें एक - एक कर सिमटने लगी, पूरे बाजार में अफरा - तफरी मच गयी ! हम दोनों ने एक कोना पकड़ा और वहां से नजारा देखने लगे। थोड़ी देर बाद, सामान उठनेवालों के जाते ही दुकानें दोबारा सज गई। किसी ने मेज पर दुकान सजाई, किसी ने कपड़ा बिछाकर ज़मीन पर, किसी ने साईकल पर तो किसी ने ठेले पर। सब कुछ इतना सुचारू रूप से हुआ, ऐसा लगा ही नहीं की कुछ देर पहले ही यहाँ अफरा - तफरी का माहौल था। जब तक मैं उस बाजार में थी, बीच - बीच में सामान उठानेवालों की खबरें मिल ही रही थी और दुकानदार हर समय इधर - उधर ताक रहे थे।

बाजार की सारी दुकानें एक दूसरे से इतनी सटी हुई थी कि 2 दुकानों के बीच में अंतर कर पाना मुश्किल था। मैं एक दुकान में सामान देख रही थी, तभी बगल की दुकान वाला बोल पड़ा " मैडम जरा हाथ संभाल कर।" मैंने अपने हाथ को अपने शरीर की ओर खींचा, 'सॉरी भैया' बोलकर दोबारा सामान देखने में लग गई।

सामान खरीदते - खरीदते कब 4 घंटे बीत गए पता ही नहीं चला। हम दोनों एक दुकान के सामने थोड़ी जगह देख कर खड़े हो गए, तभी चीखने - चिल्लाने की आवाजें सुनाई देने लगी। हमें लगा फिर से सामान उठाने वाले आए होंगे, लेकिन हम पूरी तरह से गलत थे। हमने देखा छोटी - छोटी दुकानें जो मेज पर सजी थी, उसका सामान इधर - उधर गिर रहा है। नहीं - नहीं आप जो सोच रहें हैं, वैसा बिल्कुल भी नहीं था। कोई भूकंप नहीं था। भरे बाजार में एक बंदे की पिटाई हो रही थी। लात - घुसा सब पड़ रहा था। पूछने पर पता चला वो चोरी कर रहा था। धारावाहिकों या फिल्मों में जो लड़ाई  देखी थी, वो मैं वास्तविकता में देख रही थी। यह सब देख कर मैं सहम गई थी।

इसी बीच एक बोर्ड ने मेरा ध्यान खींचा।" यहां खुला सामान नहीं मिलता है, कृपया अपना और दुकानदार का समय ना गवाएं।" पढ़ कर मैं मुस्कुरा दी, क्योंकि यह भी मेरे लिए नया था। फुटकर खरीदार कहीं थोक व्यापरियों को परेशान ना करें इसलिए दुकानदारों ने बोर्ड टांग रखा है।  

इन सबसे अलग सामानों की विभिन्न किस्मों को देखने के लिए मैं यहाँ की गलियों में उत्सुकतावश घूमने लगी। घूमते हुए मेरे जेहन में एक बात आई कि गांधी विहार की गलियां संकरी है, लेकिन यहां की तो तंग हैं। इतनी तंग कि दुकानों के छप्पर आपस में मिले हुए है। इस वजह से गलियों में दिन में ही अँधेरा रहता है। दुकानों में लगी लाइटें अंधेरे को दूर करती है। यहाँ भी काली - पीली इलेक्ट्रिक वायरों का जाल है। वो भी घना। सिर के थोड़े ही ऊपर।  

पहली बार जब मैं सदर बाजार आई थी, ठंड के दिन थे, उसके बाद बरसात और गर्मी के दिनों में भी मेरा वहां जाना हुआ। बाप रे ! हाल बेहाल हो गए थे। बारिश में जगह - जगह पानी भरा हुआ था। जैसे - तैसे मैं बचते - बचाते खरीदारी कर रही थी, लेकिन कहीं ना कहीं से कोई या तो पानी का छींटा उड़ा जाता या मेरा ही पैर पानी से भरे गड्ढे में पड़ जाता। सड़क, कीचड़ से भर गई थी, फिसलन भरे रास्ते में बहुत संभल कर चलना पड़ रहा था। कई बार तो मैं गिरते - गिरते बची। इसके उलट गर्मी के मौसम में पसीना सूखने का नाम नहीं ले रहा था और प्यास हर थोड़ी देर में लग रही थी। यहां पानी पिया नहीं कि वहां पसीना बनकर बाहर। गर्मी और भीड़ के कारण अजीब - सी बेचैनी और घबराहट भी थी। थोड़ी देर बाद जी मचलाने लगा, सिर भी घूमने लग गया। उफ्फ! इस पर पूरे बाजार में केवल पुरुषों के लिए शौचालय, जबकि बड़ी संख्या में महिलाएं यहां खरीदारी के लिए आती हैं। 

मैं यहां बता दूं कि सदर बाजार एक थोक बाजार है। रविवार को अलग से खुदरा दुकानें मुख्य सड़क के दोनों ओर सजती है। इसके अलावा, सड़क के बीचो - बीच भी दुकानों की लम्बी कतार अलग से बन जाती हैं, यानी दुकानें ही रोड डीवाईडर का भी काम करती है, जिससे सड़क की चौड़ाई और कम हो जाती है। आम दिनों में कुछ थोक व्यापारी अपनी - अपनी दुकानों के आगे ही खुदरा दुकानें सजाते है, ताकि खुदरा ग्राहक दुकानों के अन्दर आ कर मोल - भाव ना करें। इसके आलावा पतली - पतली गलियों में भी थोक दुकानें हैं। 

इससे इतर, ई - रिक्शे वालों की अलग से रेलमपेल चलती रहती है। ऐसे में  इनका जिक्र नहीं किया तो उनके साथ नाइंसाफी होगी। चांदनी चौक से सदर बाजार के रास्ते पर हमेशा ही भीड़ होती है। सदर बाजार आते - आते इसमें बढ़ोतरी हो जाती है। रिक्शा चालक के धीरज और ड्राइविंग के हुनर का पूरे रास्ते इम्तिहान होता रहता है, जिसमें हर चालाक अव्वल आने की होड़ में लगा रहता है। चालक ऐसे रिक्शा चलाते हैं, जैसे कोई साईकिल चालक तंग गलियों से फराट्टे से अपनी साईकिल निकालना चाह रहा हो। यही कारण है कि रास्ते में कई बार रिक्शा चालकों के बीच गाली - गलोच और हाथा-पाई भी हो जाती है। राहगीरों, मोटर - सायकिल चालकों से भी इनकी बक - झक होती रहती है। हर समय पूरा माहौल शोरगुल से भरा होता है। इस भीड़ में मवेशी भी इंसानों के साथ चलते है। ऐसे में कभी इनकी सिंघ से बचना होता है, तो कभी इनके गोबर से।

बाजार की इन संकरी गलियों से गुजरते समय कुछ ऐसा भी दिख जाता है, जो सोचने पर मजबूर कर देता है "क्या हम सचमुच इक्कीसवीं सदी में जी रहें हैं? " फटा, मैला कपड़ा पहने, गर्दन में अंगोछा डाले, पसीने से तर - बतर लोग लकड़ी की हाथ-गाड़ी पर सामान ढो रहे हैं। इंच - इंच सरकने वाली भीड़ के बीच हाथ-गाड़ी पर दो से तीन  मजदूर टनों का सामान ले जाते हुए दिख जाते हैं। कई मजदूर तो अपनी पीठ पर भारी सामान लाद कर ले जाते हैं। यहाँ सोचकर तकलीफ होती हैं कि मशीनों के युग में भी सामानों की ढुलाई का पुराना तरीका आज भी इस्तेमाल हो रहा है।

पुरे बाजार में घुमने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंची कि सदर बाजार में खरीदारी करना है, तो सबसे पहले अपने दिल और दिमाग को तैयार कर लो। एक बार इरादा पक्का कर लिया, फिर क्या? झोला भर - भर कर खरीदारी कर लो। यहां छोटी - बड़ी, कच्ची - पक्की दुकानों में भीड़ का हिस्सा बनकर खरीदार सस्ती और पसंदीदा चीजें तलाशता है, वहीं दुकानदार भी इसी भीड़ का हिस्सा बन कर सामान बेचता है, लेकिन भीड़, तंग गलियां, अव्यवस्था, अफ़वाह, भगदड़, आग आदि से भारी जान - माल के नुकसान को सोच कर थोड़ा डर भी लगता है। इससे अलग सदर बाजार व्यापारियों और उपभोक्ताओं का संगम स्थल है, जहाँ दोनों की जरूरतें पूरी होती है, ऐसे में यहाँ डूबकी लगाना तो बनता ही है। 

टिप्पणियाँ

Neha tiwari ने कहा…
I love you post Varsha ji��
Unknown ने कहा…
Vaoo it's an amazing vlog... Keep it up Mam ❤️
rajesh yadav ने कहा…
दिल्ली हिन्दुस्तान के आसमान का एक चमकदार सितारा होने के साथ-साथ पुरानी शान-ओ-शौकत और गंगा-जमुनी तहज़ीब का मर्कज़ भी है। इसके गली-कूचे इतिहास की बेरहम सच्चाइयों के गवाह रहे हैं। यहीं के शायरों ने अपने कलाम में दिल्ली का ज़िक्र जिस जज़्बाती अन्दाज़ में किया है वह पढ़ने से ज़्यादा महसूस करने की शय है। वर्षा जी आप के लेखन में वही शायराना रवानी है। दिल्ली को दिल से समझा है आपने। अशेष बधाई।
Unknown ने कहा…
बहुत अच्छा लिखा है आपने 🙂
Unknown ने कहा…
Superrr ...very nice ❣️
बेनामी ने कहा…
Dilli ke khubsoorat bazar ko dil se utara gaya hain...
Ojas ने कहा…
Bahot Achha Varnan...dhimese hath ki ungali pakad ke apne shabdo ke sath sadar bajar ghuma layi ho Varshaji..keep it up..
Unknown ने कहा…
Fantastic ma'am...
Pallavi ने कहा…
A good read Varsha
Vicky ने कहा…
Nice one Di.. Keep it up..
Abhishek Tiwari ने कहा…
Very nicely written Varsha... keep it up
Atmaja ने कहा…
Bahut badhiya.. Sadar Bazar to nhi Jana hua kabhi, par aaj aapne ghuma diya.. 😊
Nitesh Yadav ने कहा…
Wooow varsha nice blog
Sunny ने कहा…
boht hi badhiya, delhi ki yaad dila di
Mayur Dumbhare ने कहा…
Beautiful lines keep posting ❤️
Unknown ने कहा…
Bahut badhiya varsha...maja aaya padhkar..laga market me hu.

Unknown ने कहा…
Wow very nice Varsha ji..
Nityanand Pathak ने कहा…
बहुत ख़ूब.. इसी तरह से लिखते रहिए
बेनामी ने कहा…
Very nice
Unknown ने कहा…
Waw it's an amazing
Unknown ने कहा…
सटीक शब्दों का चयन

बहोत वडीया👏👏👏👏
Shweta ने कहा…
Wow.. beautifully said��♥️
Unknown ने कहा…
Bahot badhiya likha hai varsha ..next time ham sath chalenge shopping k liye..

Unknown ने कहा…
amezing ♥️♥️
Asha ने कहा…
Padhte padhte pure emotions smjh ane lge the....nicely written
balram ने कहा…
Bahot khoob versha ji apki likhawat behad saral aur asan hai....apne jis saralta se dilhi k bazaar ka varnan kiya o lajawaab hai..... Shabdo ka umda chayan aap ki lekhani ko darshata hai...ki aap lekhan kala me majhati ja rahi hai.....aap aise hi lekhan kala se aapke pathako ko Ru-ba-ru karati jayegi aisi aasha rakhte hai....aur ek din badi blogger k naam se Jani jayegi......
Shivratan Agarwal ने कहा…
तुम्हारा शदर बाजार यात्रा का लघु संस्मरण पढ़ने को मिला । हम २५ साल से दिल्ली जा रहे है। लेकिन कभी शदर बाजार में प्रवेश करने का या खरीदारी करने का साहस नहीं जुटा पाए । आपने शदर बाजार से खरीदारी की उस साहस को मेरा प्रणाम । संस्मरण को दो बार पढ़ा। निर्णय यही रहा कि लिखने का बहुत सुन्दर प्रयास किया है । लिखते चलो ,लिखते रहो। इस विश्वास के साथ कि मैं अच्छा लिख रही हूँ। आगे भी लिखा जायेगा । हमारी शुभकामनाएं आपके साथ है। जहाँ भी हमारी आवश्कता पड़े फ़ौरन याद करो। धन्यवाद
shishir ने कहा…
Wooow varsha nice blog
yogesh chiwande ने कहा…
मैंने दिल्ली तो नहीं देखी और न सदर बाजार। लेकिन आपका ब्लॉक पढ़कर लगा कि जैसे मैं बाजार में खड़ा हूं और आपके साथ घूम रहा। आपने अपनी लेखनी से प्रत्यक्ष बाजार का नजारा दिखाकर दिल्ली के दर्शन करा दिए। आपकी लेखनी पहले से काफी मजबूत और परिपक्व हुई है। उम्मीद है कि भविष्य में और बेहतर ब्लॉग पढ़ने को मिलेंगे। विशेष यह कि आपने याद किया उसके लिए धन्यवाद।
Lokesh sonune ने कहा…
Woooow didi bohat hi sundar likha hai aapne blog mere ko bhee ek bar delhi aana hai aur ghumna hai

Kunika ने कहा…
Apka shabdo ka chayan satik hai...Every scene n it's feeling expressed wonderfully. Delhi ke Sadar bazar itni nahi but bhid Nagpur Sadar bazar me bhi kam nhi hoti... Thodi der ke liye mujhe Nagpur ke Sadar bazar ki yaad aa gyi.
Roji roti kamane wale logo ko kitna struggle karna padta hai..Har bazar me vikretao ke lye vaise hi kharidaro ke liye suvidhao ke sath suraksha ke kuchh niyam bhi hote hai par har taraf Un niyamo ke parkhacchehi ude hue dikhte hai..gaur karne wali bat hai....apke blog me is ka satik vivaran kiya gya hai.
नितिन गोरे ने कहा…
Bahot khoob. Mein bhi gai thi Chandni chowk market.market dekh kar to pahle mere Haush hi ud gaye. aisa lag raha tha kya purchase karu kya na karu. Sirf waha jane k liye bahot sara paisa or time chahiye.
नितिन गोरे ने कहा…
Your blog and your observation is good..... hope your next blog will come soon..... Keep it up.
Unknown ने कहा…
Mstt👌👌👌👌👌
Devesh Nagar ने कहा…
Bahut badhiya Didi. Padh k bahut accha laga
Himanshu ने कहा…
इस रचना का शीर्षक सराहनीय है। यह शीर्षक इस पूरी रचना में सर्वत्र दिखाई देता है।
सभी पात्रों ने अपने अपने किरदार बखूबी निभा कर इस शीर्षक को और अधिक सार्थक बना दिया है।
Unknown ने कहा…
Amezing ❤️💕👌
Keep writing
Unknown ने कहा…
So nice didi...... Bht acha blog h. Keep it up didi....

Pratibha sharma ने कहा…
Wawww varsha... Really it is very interesting
Blog.... Keep it up 👍👍👍dear

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